अन्धा युग – धर्मवीर भारती द्वारा सम्पूर्ण (सभी भाग ) हिंदी कविता यहाँ पढ़ें | Andha Yug by Dharmveer Bharati Complete (All Parts) Hindi Poem Read Here | Free Hindi Books
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- पहला अंक
कौरव नगरीतीन बार तूर्यनाद के उपरान्तकथा-गायनटुकड़े-टुकड़े हो बिखर चुकी मर्यादाउसको दोनों ही पक्षों ने तोड़ा हैपाण्डव ने कुछ कम कौरव ने कुछ ज्यादायह रक्तपात अब कब समाप्त होना हैयह अजब युद्ध है नहीं किसी की भी जयदोनों पक्षों को खोना ही खोना हैअन्धों से शोभित था युग का सिंहासनदोनों ही पक्षों में विवेक ही हारादोनों ही पक्षों में जीता अन्धापनभय का अन्धापन, ममता का अन्धापनअधिकारों का अन्धापन जीत गयाजो कुछ सुन्दर था, शुभ था, कोमलतम थावह हार गया….द्वापर युग बीत गया[पर्दा उठने लगता है]यह महायुद्ध के अंतिम दिन की संध्याहै छाई चारों ओर उदासी गहरीकौरव के महलों का सूना गलियाराहैं घूम रहे केवल दो बूढ़े प्रहरी[पर्दा उठाने पर स्टेज खाली है। दाईं और बाईं ओर बरछे और ढाल लिये दो प्रहरी हैं जो वार्तालाप करते हुए यन्त्र-परिचालित से स्टेज के आर-पार चलते हैं।]प्रहरी 1. थके हुए हैं हम,पर घूम-घूम पहरा देते हैंइस सूने गलियारे में
प्रहरी 2. सूने गलियारे मेंजिसके इन रत्न-जटित फर्शों परकौरव-वधुएँमंथर-मंथर गति सेसुरभित पवन-तरंगों-सी चलती थींआज वे विधवा हैं,
प्रहरी 1. थके हुए हैं हम,इसलिए नहीं किकहीं युद्धों में हमने भीबाहुबल दिखाया हैप्रहरी थे हम केवलसत्रह दिनों के लोमहर्षक संग्राम मेंभाले हमारे ये,ढालें हमारी ये,निरर्थक पड़ी रहींअंगों पर बोझ बनीरक्षक थे हम केवललेकिन रक्षणीय कुछ भी नहीं था यहाँ
प्रहरी 2. रक्षणीय कुछ भी नहीं था यहाँ……….संस्कृति थी यह एक बूढ़े और अन्धे कीजिसकी सन्तानों नेमहायुद्ध घोषित किये,जिसके अन्धेपन में मर्यादागलित अंग वेश्या-सीप्रजाजनों को भी रोगी बनाती फिरीउस अन्धी संस्कृति,उस रोगी मर्यादा कीरक्षा हम करते रहेसत्रह दिन।
प्रहरी 1. जिसने अब हमको थका डाला हैमेहनत हमारी निरर्थक थीआस्था का,साहस का,श्रम का,अस्तित्व का हमारेकुछ अर्थ नहीं थाकुछ भी अर्थ नहीं था
प्रहरी 2. अर्थ नहीं थाकुछ भी अर्थ नहीं थाजीवन के अर्थहीनसूने गलियारे मेंपहरा दे देकरअब थके हुए हैं हमअब चुके हुए हैं हम
[चुप होकर वे आर-पार घूमते हैं। सहसा स्टेज पर प्रकाश धीमा हो जाता है। नेपथ्य से आँधी की-सी ध्वनि आती है। एक प्रहरी कान लगाकर सुनता है, दूसरा भौंहों पर हाथ रख कर आकाश की ओर देखता है।]प्रहरी 1. सुनते होकैसी है ध्वनि यहभयावह ?
प्रहरी 2. सहसा अँधियारा क्यों होने लगादेखो तोदीख रहा है कुछ ?
प्रहरी 1. अन्धे राजा की प्रजा कहाँ तक देख ?दीख नहीं पड़ता कुछहाँ, शायद बादल है
[दूसरा प्रहरी भी बगल में आकर देखता है और भयभीत हो उठता है]प्रहरी-2. बादल नहीं हैवे गिद्ध हैं
लाखों-करोड़ोंपाँखें खोले[पंखों की ध्वनि के साथ स्टेज पर और भी अँधेरा]प्रहरी-1. लोसारी कौरव नगरीका आसमानगिद्धों ने घेर लिया
प्रहरी-2. झुक जाओझुक जाओढालों के नीचेछिप जाओनरभक्षी हैंवे गिद्ध भूखे हैं।
[प्रकाश तेज होने लगता है]प्रहरी-1. लो ये मुड़ गयेकुरुक्षेत्र की दिशा में
[आँधी की ध्वनि कम होने लगती है]प्रहरी-2. मौत जैसेऊपर से निकल गयी
प्रहरी-1. अशकुन हैभयानक वह।पता नहीं क्या होगाकल तकइस नगरी में
[विदुर का प्रवेश, बाईं ओर से]प्रहरी-1. कौन है ?विदुर. मैं हूँविदुरदेखा धृतराष्ट्र नेदेखा यह भयानक दृश्य ?
प्रहरी-1. देखेंगे कैसे वे ?अन्धे हैं।कुछ भी क्या देख सकेअब तकवे ?
विदुर. मिलूँगा उनसे मैंअशकुन भयानक हैपता नहीं संजयक्या समाचार लाये आज ?
[प्रहरी जाते हैं, विदुर अपने स्थान पर चिन्तातुर खड़े रहते हैं। पीछे का पर्दा उठने लगता है।]कथा गायन
है कुरुक्षेत्र से कुछ भी खबर न आयीजीता या हारा बचा-खुचा कौरव-दलजाने किसकी लोथों पर जा उतरेगायह नरभक्षी गिद्धों का भूखा बादलअन्तःपुर में मरघट की-सी खामोशीकृश गान्धारी बैठी है शीश झुकायेसिंहासन पर धृतराष्ट्र मौन बैठे हैंसंजय अब तक कुछ भी संवाद न लाये।[पर्दा उठने पर अन्तःपुर। कुशासन बिछाये सादी चौकी पर गान्धारी, एक छोटे सिंहासन पर चिन्तातुर धृतराष्ट्र। विदुर उनकी ओर बढ़ते हैं।]
पर घूम-घूम पहरा देते हैंइस सूने गलियारे में
जिसके इन रत्न-जटित फर्शों परकौरव-वधुएँमंथर-मंथर गति सेसुरभित पवन-तरंगों-सी चलती थींआज वे विधवा हैं,
इसलिए नहीं किकहीं युद्धों में हमने भीबाहुबल दिखाया हैप्रहरी थे हम केवलसत्रह दिनों के लोमहर्षक संग्राम मेंभाले हमारे ये,ढालें हमारी ये,निरर्थक पड़ी रहींअंगों पर बोझ बनीरक्षक थे हम केवललेकिन रक्षणीय कुछ भी नहीं था यहाँ
संस्कृति थी यह एक बूढ़े और अन्धे कीजिसकी सन्तानों नेमहायुद्ध घोषित किये,जिसके अन्धेपन में मर्यादागलित अंग वेश्या-सीप्रजाजनों को भी रोगी बनाती फिरीउस अन्धी संस्कृति,उस रोगी मर्यादा कीरक्षा हम करते रहेसत्रह दिन।
मेहनत हमारी निरर्थक थीआस्था का,साहस का,श्रम का,अस्तित्व का हमारेकुछ अर्थ नहीं थाकुछ भी अर्थ नहीं था
कुछ भी अर्थ नहीं थाजीवन के अर्थहीनसूने गलियारे मेंपहरा दे देकरअब थके हुए हैं हमअब चुके हुए हैं हम
कैसी है ध्वनि यहभयावह ?
देखो तोदीख रहा है कुछ ?
दीख नहीं पड़ता कुछहाँ, शायद बादल है
वे गिद्ध हैं
सारी कौरव नगरीका आसमानगिद्धों ने घेर लिया
झुक जाओढालों के नीचेछिप जाओनरभक्षी हैंवे गिद्ध भूखे हैं।
कुरुक्षेत्र की दिशा में
ऊपर से निकल गयी
भयानक वह।पता नहीं क्या होगाकल तकइस नगरी में
विदुरदेखा धृतराष्ट्र नेदेखा यह भयानक दृश्य ?
अन्धे हैं।कुछ भी क्या देख सकेअब तकवे ?
अशकुन भयानक हैपता नहीं संजयक्या समाचार लाये आज ?
कथा गायन
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- द्वितीय अंक
धृतराष्ट्र-विदुर-कौन संजय?नहीं!विदुर हूँ महाराज।विह्वल है सारा नगर आजबचे-खुचे जो भी दस-बीस लोगकौरव नगरी में हैंअपलक नेत्रों सेकर रहे प्रतीक्षा हैं संजय की।(कुछ क्षण महाराज के उत्तर की प्रतीक्षा कर)महाराजचुप क्यों हैं इतनेआपमाता गान्धारी भी मौन हैं!धृतराष्ट्र-विदुर!जीवन में प्रथम बारआज मुझे आशंका व्यापी है।विदुर-आशंका?आपको जो व्यापी है आजवह वर्षों पहले हिला गई थी सबकोधृतराष्ट्र-विदुर-पहले पर कभी भी तुमने यह नहीं कहाभीष्म ने कहा था,गुरु द्रोण ने कहा था,इसी अन्त:पुर मेंआकर कृष्ण ने कहा था –‘मर्यादा मत तोड़ोतोड़ी हुई मर्यादाकुचले हुए अजगर-सीगुंजलिका में कौरव-वंश को लपेट करसूखी लकड़ी-सा तोड़ डालेगी।’धृतराष्ट्र-समझ नहीं सकते होविदुर तुम।मैं था जन्मान्ध।कैसे कर सकता था।ग्रहण मैंबाहरी यथार्थ या सामाजिक मर्यादा को?विदुर-जैसे संसार को किया था ग्रहणअपने अन्धेपनके बावजूदधृतराष्ट्र- पर वह संसारस्वत: अपने अन्धेपन से उपजा था।मैंने अपने ही वैयक्तिक सम्वेदन से जो जाना थाकेवल उतना ही था मेरे लिए वस्तु-जगत्इन्द्रजाल की माया-सृष्टि के समानघने गहरे अँधियारे मेंएक काले बिन्दु सेमेरे मन ने सारे भाव किए थे विकसितमेरी सब वृत्तियाँ उसी से परिचालित थीं!मेरा स्नेह, मेरी घृणा, मेरी नीति, मेरा धर्मबिलकुल मेरा ही वैयक्तिक था।उसमें नैतिकता का कोई बाह्य मापदंड था ही नहीं।कौरव जो मेरी मांसलता से उपजे थेवे ही थे अन्तिम सत्यमेरी ममता ही वहाँ नीति थी,मर्यादा थी।विदुर-पहले ही दिन से किन्तुआपका वह अन्तिम सत्य– कौरवों का सैनिक-बल –होने लगा था सिद्ध झूठा और शक्तिहीनपिछले सत्रह दिन सेएक-एक करपूरे वंश के विनाश कासम्वाद आप सुनते रहे।धृतराष्ट्र-मेरे लिए वे सम्वाद सब निरर्थक थे।मैं हूँ जन्मान्धकेवल सुन ही तो सकता हूँसंजय मुझे देते हैं केवल शब्दउन शब्दों से जो आकार-चित्र बनते हैंउनसे मैं अब तक अपरिचित हूँकल्पित कर सकता नहींकैसे दु:शासन की आहत छाती सेरक्त उबल रहा होगा,कैसे क्रूर भीम ने अँजुली मेंधार उसेओठ तर किए होंगे।गान्धारी-(कानों पर हाथ रखकर)महाराज।मत दोहरायें वहसह नहीं पाऊँगी।(सब क्षण भर चुप)धृतराष्ट्र- आज मुझे भान हुआ।मेरी वैयक्तिक सीमाओं के बाहर भीसत्य हुआ करता हैआज मुझे भान हुआ।सहसा यह उगा कोई बाँध टूट गया हैकोटि-कोटि योजन तक दहाड़ता हुआ समुद्रमेरे वैयक्तिक अनुमानित सीमित जग कोलहरों की विषय-जिह्वाओं से निगलता हुआमेरे अन्तर्मन में पैठ गयासब कुछ बह गयामेरे अपने वैयक्तिक मूल्यमेरी निश्चिन्त किन्तु ज्ञानहीन आस्थाएँ।iविदुर- यह जो पीड़ा नेपराजय नेदिया है ज्ञान,दृढ़ता ही देगा वह।धृतराष्ट्र- किन्तु, इस ज्ञान नेभय ही दिया है विदुर!जीवन में प्रथम बारआज मुझे आशंका व्यापी है।विदुर- भय है तोज्ञान है अधूरा अभी।प्रभु ने कहा था वह‘ज्ञान जो समर्पित नहीं हैअधूरा हैमनोबुद्धि तुम अर्पित कर दोमुझे।भय से मुक्त होकरतुम प्राप्त मुझे ही होगेइसमें संदेह नहीं।’गान्धारी- (आवेश से)इसमें संदेह हैऔर किसी को मत होमुझको है।‘अर्पित कर दो मुझको मनोबुद्धि’उसने कहा है यहजिसने पितामह के वाणों सेआहत हो अपनी सारी हीमनोबुद्धि खो दी थी?उसने कहा है यह,जिसने मर्यादा को तोड़ा है बार-बार?धृतराष्ट्र- शान्त रहोशान्त रहो,गान्धारी शान्त रहो।दोष किसी को मत दो।अन्धा था मैंगान्धारी- लेकिन अन्धी नहीं थी मैं।मैंने यह बाहर का वस्तु-जगत् अच्छी तरह जाना थाधर्म, नीति, मर्यादा, यह सब हैं केवल आडम्बर मात्र,मैंने यह बार-बार देखा था।निर्णय के क्षण में विवेक और मर्यादाव्यर्थ सिद्ध होते आए हैं सदाहम सब के मन में कहीं एक अन्य गह्वर है।बर्बर पशु अन्धा पशु वास वहीं करता है,स्वामी जो हमारे विवेक का,नैतिकता, मर्यादा, अनासक्ति, कृष्णार्पणयह सब हैं अन्धी प्रवृत्तियों की पोशाकेंजिनमें कटे कपड़ों की आँखें सिली रहती हैंमुझको इस झूठे आडम्बर से नफ़रत थीइसालिए स्वेच्छा से मैंने इन आँखों पर पट्टी चढ़ा रक्खी थी।विदुर- कटु हो गई हो तुमगान्धारी!पुत्रशोक ने तुमको अन्दर सेजर्जर कर डाला है!तुम्हीं ने कहा थादुर्योधन सेगांधारी- मैंने कहा था दुर्योधन सेधर्म जिधर होगा ओ मूर्ख!उधर जय होगी!धर्म किसी ओर नहीं था। लेकिन!सब ही थे अन्धी प्रवृत्तियों से परिचालितजिसको तुम कहते हो प्रभुउसने जब चाहामर्यादा को अपने ही हित में बदल लिया।वंचक है।धृतराष्ट्र-विदुर- शान्त रहो गान्धारी।यह कटु निराशा कीउद्धत अनास्था है।क्षमा करो प्रभु!यह कटु अनास्था भी अपनेचरणों में स्वीकार करो!आस्था तुम लेते होलेगा अनास्था कौन?क्षमा करो प्रभु!पुत्र-शोक से जर्जर माता हैं गान्धारी।गान्धारी- माता मत कहो मुझेतुम जिसको कहते हो प्रभुवह भी मुझे माता ही कहता है।शब्द यह जलते हुए लोहे की सलाखों-सामेरी पसलियों में धँसता है।सत्रह दिन के अन्दरमेरे सब पुत्र एक-एक कर मारे गएअपने इन हाथों सेमैंने उन फूलों-सी वधुओं की कलाइयों सेचूड़ियाँ उतारी हैंअपने इस आँचल सेसेंदुर की रेखाएँ पोंछी हैं।(नेपथ्य से) जय होदुर्योधन की जय हो।गान्धारी की जय हो।मंगल हो,नरपति धृतराष्ट्र का मंगल हो।धृतराष्ट्र- देखो।विदुर देखो! संजय आये।गान्धारी – जीत गयामेरा पुत्र दुर्योधनमैंने कहा थावह जीतेगा निश्चय आज।(प्रहरी का प्रवेश)प्रहरी- याचक है महाराज!(याचक का प्रवेश)एक वृद्ध याचक है।विदुर- याचक है?उन्नत ललाटश्वेतकेशीआजानुबाहु?याचक – मैं वह भविष्य हूँजो झूठा सिद्ध हुआ आजकौरव की नगरी मेंमैंने मापा था, नक्षत्रों की गति कोउतारा था अंकों में।मानव-नियति केअलिखित अक्षर जाँचे थे।मैं था ज्योतिषी दूर देश का।धृतराष्ट्र- याद मुझे आता हैतुमने कहा था कि द्वन्द्व अनिवार्य हैक्योंकि उससे ही जय होगी कौरव-दल की।याचक- मैं हूँ वहीआज मेरा विज्ञान सब मिथ्या ही सिद्ध हुआ।सहसा एक व्यक्तिऐसा आया जो सारेनक्षत्रों की गति से भी ज़्यादा शक्तिशाली था।उसने रणभूमि मेंविषादग्रस्त अर्जुन से कहा –‘मैं हूँ परात्पर।जो कहता हूँ करोसत्य जीतेगामुझसे लो सत्य, मत डरो।’विदुर-गान्धारी-विदुर- प्रभु थे वे!कभी नहीं!उनकी गति में हीसमाहित है सारे इतिहासों की,सारे नक्षत्रों की दैवी गति।याचक- पता नहीं प्रभु हैं या नहींकिन्तु, उस दिन यह सिद्ध हुआजब कोई भी मनुष्यअनासक्त होकर चुनौती देता है इतिहास को,उस दिन नक्षत्रों की दिशा बदल जाती है।नियति नहीं है पूर्वनिर्धारित-उसको हर क्षण मानव-निर्णय बनाता-मिटाता है।गान्धारी- प्रहरी, इसको एक अंजुल मुद्राएँ दो।तुमने कहा है-‘जय होगी दुर्योधन की।’याचक- मैं तो हूँ झूठा भविष्य मात्रमेरे शब्दों का इस वर्तमान मेंकोई मूल्य नहीं,मेरे जैसेजाने कितने झूठे भविष्यध्वस्त स्वप्नगलित तत्वबिखरे हैं कौरव की नगरी मेंगली-गली।माता हैं गान्धारीममता में पाल रहीं हैं सब को।(प्रहरी मुद्राएँ लाकर देता है)जय हो दुर्योधन कीजय हो गान्धारी की(जाता है)गान्धारी- होगी,अवश्य होगी जय।मेरी यह आशायदि अन्धी है तो होपर जीतेगा दुर्योधन जीतेगा।(दूसरा प्रहरी आकर दीप जलाता है)विदुर-धृतराष्ट्र- डूब गया दिनपरसंजय नहीं आएलौट गए होंगेसब योद्धा अब शिविर मेंजीता कौन?हारा कौन?विदुर- महाराज!संशय मत करें।संजय जो समाचार लाएँगे शुभ होगामाता अब जाकर विश्राम करें!नगर-द्वार अपलक खुले ही हैंसंजय के रथ की प्रतीक्षा में(एक ओर विदुर और दूसरी ओर धृतराष्ट्र तथा गांधारी जाते हैं; प्रहरी पुन: स्टेज के आरपार घूमने लगते हैं)प्रहरी-१प्रहरी-२प्रहरी-१प्रहरी-२ मर्यादा!अनास्था!पुत्रशोक!भविष्यत्!प्रहरी-१खप्रहरी-२खप्रहरी-१खप्रहरी-२ख– प्रहरी-१–प्रहरी-२–ये सबराजाओं के जीवन की शोभा हैंवे जिनको ये सब प्रभु कहते हैं।इस सब को अपने ही जिम्मे ले लेते हैं।पर यह जो हम दोनों का जीवनसूने गलियारे में बीत गयाकौन इसेअपने जिम्मे लेगा?हमने मर्यादा का अतिक्रमण नहीं किया,क्योंकि नहीं थी अपनी कोई भी मर्यादा।हमको अनास्था ने कभी नहीं झकझोरा,क्योंकि नहीं थी अपनी कोई भी गहन आस्था।प्रहरी-१ –प्रहरी-२ –प्रहरी-१ –प्रहरी-२ –प्रहरी-१ –प्रहरी-२ – हमने नहीं झेला शोकजाना नहीं कोई दर्दसूने गलियारे-सा सूना यह जीवन भी बीत गया।क्योंकि हम दास थेकेवल वहन करते थे आज्ञाएँ हम अन्धे राजा कीनहीं था हमारा कोई अपना खुद का मत,कोई अपना निर्णयप्रहरी-१ – इसलिए सूने गलियारे मेंनिरूद्देश्य,निरूद्देश्य,चलते हम रहे सदादाएँ से बाएँ,और बाएँ से दाएँप्रहरी-२ – मरने के बाद भीयम के गलियारे मेंचलते रहेंगे सदादाएँ से बाएँऔर बाएँ से दाएँ!(चलते-चलते विंग में चले जाते हैं। स्टेज पर अँधेरा)धीरे-धीरे पटाक्षेप के साथकथा गायन- आसन्न पराजय वाली इस नगरी मेंसब नष्ट हुई पद्धतियाँ धीमे-धीमेयह शाम पराजय की, भय की, संशय कीभर गए तिमिर से ये सूने गलियारेजिनमें बूढ़ा झूठा भविष्य याचक-साहै भटक रहा टुकड़े को हाथ पसारेअन्दर केवल दो बुझती लपटें बाकीराजा के अन्धे दर्शन की बारीकीया अन्धी आशा माता गान्धारी कीवह संजय जिसको वह वरदान मिला हैवह अमर रहेगा और तटस्थ रहेगाजो दिव्य दृष्टि से सब देखेगा समझेगाजो अन्धे राजा से सब सत्य कहेगा।जो मुक्त रहेगा ब्रम्हास्त्रों के भय सेजो मुक्त रहेगा, उलझन से, संशय सेवह संजय भीइस मोह-निशा से घिर करहै भटक रहाजाने किसकंटक-पथ पर।- तृतीय अंक
कथा-गायन- संजय तटस्थद्रष्टा शब्दों का शिल्पी हैपर वह भी भटक गया असंजस के वन मेंदायित्व गहन, भाषा अपूर्ण, श्रोता अन्धेपर सत्य वही देगा उनको संकट-क्षण मेंवह संजय भीइस मोह-निशा से घिर करहै भटक रहाजाने किस कंटक-पथ पर(पर्दा उठने पर वनपथ का दृश्य। कोई योद्धा बगल में अस्त्र रख कर वस्त्र से मुख ढाँप सोया है। संजय का प्रवेश)संजय- भटक गया हूँमैं जाने किस कंटक-वन मेंपता नहीं कितनी दूर हस्तिनापुर हैं,कैसे पहुँचूँगा मैं?जाकर कहूँगा क्याइस लज्जाजनक पराजय के बाद भीक्यों जीवित बचा हूँ मैं?कैसे कहूँ मैंकमी नहीं शब्दों की आज भीमैंने ही उनको बताया हैयुद्ध में घटा जो-जो,लेकिन आज अन्तिम पराजय के अनुभव नेजैसे प्रकृति ही बदल दी है सत्य कीआज कैसे वही शब्दवाहक बनेंगे इस नूतन-अनुभूति के?(सहसा जाग कर वह योद्धा पुकारता है – संजय)किसने पुकारा मुझे?प्रेतों की ध्वनि है यहया मेरा भ्रम ही है?कृतवर्मा- डरो मतमैं हूँ कृतवर्मा!जीवित हो संजय तुम?पांडव योद्धाओं ने छोड़ दियाजीवित तुम्हें?संजय- जीवित हूँ।आज जब कोसों तक फैली हुई धरती कोपाट दिया अर्जुन नेभूलुँठित कौरव-कबन्धों से,शेष नहीं रहा एक भीजीवित कौरव-वीरसात्यकि ने मेरे भी वध को उठाया अस्त्र;अच्छा थामैं भीयदि आज नहीं बचता शेष,किन्तु कहा व्यास ने ‘मरेगा नहींसंजय अवध्य है’कैसा यह शाप मुझे व्यास ने दिया हैअनजाने मेंहर संकट, युद्ध, महानाश, प्रलय, विप्लव के बावजूदशेष बचोगे तुम संजयसत्य कहने कोअन्धों सेकिन्तु कैसे कहूँगा हायसात्यकि के उठे हुए अस्त्र केचमकदार ठंडे लोहे के स्पर्श मेंमृत्यु को इतने निकट पानामेरे लिए यहबिल्कुल ही नया अनुभव था।जैसे तेज वाण किसीकोमल मृणाल कोऊपर से नीचे तक चीर जाएचरम त्रास के उस बेहद गहरे क्षण मेंकोई मेरी सारी अनुभूतियों को चीर गयाकैसे दे पाऊँगा मैं सम्पूर्ण सत्यउन्हें विकृत अनुभूति से?कृतवर्मा – धैर्य धरो संजय!क्योंकि तुमको ही जाकर बतानी हैदोनों को पराजय दुर्योधन की!संजय – कैसे बताऊँगा!वह जो सम्राटों का अधिपति थाखाली हाथनंगे पाँवरक्त-सनेफटे हुए वस्त्रों मेंटूटे रथ के समीपखड़ा था निहत्था हो;अश्रु-भरे नेत्रों सेउसने मुझे देखाऔर माथा झुका लियाकैसे कहूँगामैं जाकर उन दोनों सेकैसे कहूँगा?(जाता है)कृतवर्मा- चला गया संजय भीबहुत दिनों पहलेविदुर ने कहा थायह होकर रहेगा,वह होकर रहा आज(नेपथ्य में कोई पुकारता है, “अश्वत्थामा।” कृतवर्मा ध्यान से सुनता है)यह तो आवाज़ हैबूढ़े कृपाचार्य की।(नेपथ्य में पुन: पुकार ‘अश्वत्थामा।’ कृतवर्मा पुकारता है – कृपाचार्य कृपाचार्य’ कृपाचार्य का प्रवेश)यह तो कृतवर्मा है।तुम भी जीवित हो कृतवर्मा?कृतवर्मा- जीवित हूँक्या अश्वत्थामा भी जीवित है?कृपाचार्य- जीवित हैकेवल हम तीनआज!रथ से उतर करजब राजा दुर्योधन नेनतमस्तक होकरपराजय स्वीकार कीअश्वत्थामा नेयह देखाऔर उसी समयउसने मरोड़ दियाअपना धनुषआर्तनाद करता हुआवन की ओर चला गयाअश्वत्थामा(पुकारते हुए जाते हैं, दूर से उनकी पुकार सुन पड़ती है। पीछे का पर्दा खुल कर अन्दर का दृष्य। अँधेरा – केवल एक प्रकाश-वृत्त अश्वत्थामा पर, जो टूटा धनुष हाथ में लिए बैठा है।)- चतुर्थ अंक
अश्वत्थामा – यह मेरा धनुष हैधनुष अश्वत्थामा काजिसकी प्रत्यंचा खुद द्रोण ने चढ़ाई थीआज जब मैंनेदुर्योधन को देखानि:शस्त्र, दीनआँखों में आँसू भरेमैंने मरोड़ दियाअपने इस धनुष को।कुचले हुए साँप-साभयावह किन्तुशक्तिहीन मेरा धनुष है यहजैसा है मेरा मनकिसके बल पर लूँगामैं अबप्रतिशोधपिता की निर्मम हत्या कावन मेंभयानक इस वन में भीभूल नहीं पाता हूँ मैंकैसे सुनकरयुधिष्ठिर की घोषणाकि ‘अश्वत्थामा मारा गया’शस्त्र रख दिए थेगुरु द्रोण ने रणभूमि मेंउनको थी अटल आस्थायुधिष्ठिर की वाणी मेंपाकर निहत्था उन्हेंपापी दृष्टद्युम्न नेअस्त्रों से खंड-खंड कर डालाभूल नहीं पाता हूँमेरे पिता थे अपराजेयअर्द्धसत्य से हीयुधिष्ठिर ने उनकावध कर डाला।उस दिन सेमेरे अन्दर भीजो शुभ था, कोमलतम थाउसकी भ्रूण-हत्यायुधिष्ठिर केअर्धसत्य ने कर दीधर्मराज होकर वे बोले‘नर या कुंजर’मानव को पशु सेउन्होंने पृथक् नहीं कियाउस दिन से मैं हूँपशुमात्र, अन्ध बर्बर पशुकिन्तु आज मैं भी एक अन्धी गुफ़ा में हूँ भटक गयागुफ़ा यह पराजय की!दुर्योधन सुनो!सुनो, द्रोण सुनो!मैं यह तुम्हारा अश्वत्थामाकायर अश्वत्थामाशेष हूँ अभी तकजैसे रोगी मुर्दे केमुख में शेष रहता हैगन्दा कफबासी थूकशेष हूँ अभी तक मैं(वक्ष पीटता है)आत्मघात कर लूँ?इस नपुंसक अस्तित्व सेछुटकारा पाकरयदि मुझेपिछली नरकाग्नि में उबलना पड़ेतो भी शायदइतनी यातना नहीं होगी!(नेपथ्य में पुकार अश्वत्थामा )किन्तु नहीं!जीवित रहूँगा मैंअन्धे बर्बर पशु-सावाणी हो सत्य धर्मराज की।मेरी इस पसली के नीचेदो पंजे उग आयेंमेरी ये पुतलियाँबिन दाँतों के चोथ खायेंपायें जिसे।वध, केवल वध, केवल वधअंतिम अर्थ बनेमेरे अस्तित्व का।(किसी के आने की आहट)आता है कोईशायद पांडव-योद्धा हैआ हा!अकेला, निहत्था है।पीछे से छिपकरइस पर करूँगा वारइन भूखे हाथों सेधनुष मरोड़ा हैगर्दन मरोडूँगाछिप जाऊँ, इस झाड़ी के पीछे।(छिपता है। संजय का प्रवेश)संजय- फिर भी रहूँगा शेषफिर भी रहूँगा शेषफिर भी रहूँगा शेषसत्य कितना कटु होकटु से यदि कटुतर होकटुतर से कटुतम होफिर भी कहूँगा मैंकेवल सत्य, केवल सत्य, केवल सत्यहै अन्तिम अर्थमेरे आह!(अश्वत्थामा आक्रमण करता है। गला दबोच लेता है)अश्वत्थामा – इसी तरहइसी तरहमेरे भूखे पंजे जाकर दबोचेंगेवह गला युधिष्ठिर काजिससे निकला था‘अश्वत्थामा हतो हत:’(कृतवर्मा और कृपाचार्य प्रवेश करते हैं)कृतवर्मा – (चीखकर)छोड़ो अश्वत्थामा!संजय है वहकोई पांडव नहीं है।अश्वत्थामा –कृपाचार्य –केवल, केवल वध, केवलकृतवर्मा, पीछे से पकड़ोकस लो अश्वत्थामा को।वध – लेकिन शत्रु का –कैसे योद्धा हो अश्वत्थामा?संजय अवध्य हैतटस्थ है।अश्वत्थामा – (कृतवर्मा के बन्धन में छटपटाता हुआ)तटस्थ?मातुल मैं योद्धा नहीं हूँबर्बर पशु हूँयह तटस्थ शब्दहै मेरे लिए अर्थहीन।सुन लो यह घोषणाइस अन्धे बर्बर पशु कीपक्ष में नहीं है जो मेरेवह शत्रु है।कृतवर्मा – पागल हो तुमसंजय, जाओ अपने पथ परसंजय – मत छोड़ोविनती करता हूँमत छोड़ो मुझेकर दो वधजाकर अन्धों सेसत्य कहने कीमर्मान्तक पीड़ा है जोउससे जो वध ज़्यादा सुखमय हैवध करकेमुक्त मुझे कर दोअश्वत्थामा!(अश्वत्थामा विवश दृष्टि से कृपाचार्य की ओर देखता है, उनके कन्धों से शीश टिका देता है)अश्वत्थामा – मैं क्या करूँ?मातुल;मैं क्या करूँ?वध मेरे लिए नहीं रही नीतिवह है अब मेरे लिए मनोग्रंथिकिसको पा जाऊँमरोडूँ मैं!मैं क्या करूँ?मातुल, मैं क्या करूँ?कृपाचार्य – mमत हो निराशअभी , , , ,कृतवर्मा – करना बहुत कुछ हैजीवित अभी भी है दुर्योधनचल कर सब खोजें उन्हें।कृपाचार्य – संजयतुम्हें ज्ञात हैकहाँ है वे?संजय – (धीमे से)वे हैं सरोवर मेंमाया से बाँध करसरोवर का जलवे निश्चलअन्दर बैठे हैंज्ञात नहीं हैयह पांडव-दल को।कृपाचार्य – स्वस्थ हो अश्वत्थामाचल कर आदेश लो दुर्योधन सेसंजय, चलोतुम सरोवर तक पहुँचा दोकृतवर्मा – कौन आ रहा है वहवृद्ध व्यक्ति?कृपाचार्य – निकल चलोइसके पहले कि हमकोकोई भी देख पाएअश्वत्थामा – (जाते-जाते) मैं क्या करूँ मातुलमैंने तो अपना धनुष भी मरोड़ दिया।(वे जाते हैं। कुछ क्षण स्टेज खाली रहता है। फिर धीरे-धीरे वृद्ध याचक प्रवेश करता है)वृद्ध याचक – दूर चला आया हूँकाफीहस्तिनापुर से,वृद्ध हूँ, दीख नहीं पड़ता हैनिश्चय ही अभी यहाँ देखा था मैंने कुछ लोगों कोदेखूँ मुझको जो मुद्राएँ दींमाता गान्धारी नेवे तो सुरक्षित हैं।मैंने यह कहा था‘यह है अनिवार्यऔर वह है अनिवार्यऔर यह तो स्वयम् होगा’ –आज इस पराजय की बेला मेंसिद्ध हुआझूठी थी सारी अनिवार्यता भविष्य की।केवल कर्म सत्य हैमानव जो करता है, इसी समयउसी में निहित है भविष्ययुग-युग तक का!(हाँफता है)इसलिए उसने कहाअर्जुनउठाओ शस्त्रविगतज्वर युद्ध करोनिष्क्रियता नहींआचरण में हीमानव-अस्तित्व की सार्थकता है।(नीचे झुक कर धनुष देखता है। उठाकर)किसने यह छोड़ दिया धनुष यहाँ?क्या फिर किसी अर्जुन केमन में विषाद हुआ?अश्वत्थामा – (प्रवेश करते हुए)मेरा धनुष हैयह।वृद्ध याचक – कौन आ रहा है यह?जय अश्वत्थामा की!अश्वत्थामा – जय मत कहो वृद्ध!जैसे तुम्हारी भविष्यत् विद्यासारी व्यर्थ हुईउसी तरह मेरा धनुष भी व्यर्थ सिद्ध हुआ।मैंने अभी देखा दुर्योधन कोजिसके मस्तक परमणिजटित राजाओं की छाया थीआज उसी मस्तक परगँदले पानी कीएक चादर है।तुमने कहा था –जय होगी दुर्योधन कीवृद्ध याचक – जय हो दुर्योधन की –अब भी मैं कहता हूँवृद्ध हूँथका हूँपर जाकर कहूँगा मैं‘नहीं है पराजय यह दुर्योधन कीइसको तुम मानो नये सत्य की उदय-वेला।’मैंने बतलाया थाउसको झूठा भविष्यअब जा कर उसको बतलाऊँगावर्तमान से स्वतन्त्र कोई भविष्य नहींअब भी समय है दुर्योधन,समय अब भी है!हर क्षण इतिहास बदलने का क्षण होता है।(धीरे-धीरे जाने लगता है।)अश्वत्थामा –मैं क्या करूँगाहाय मैं क्या करूँगा?वर्तमान में जिसकेमैं हूँ और मेरी प्रतिहिंसा है!एक अर्द्धसत्य ने युधिष्ठिर केमेरे भविष्य की हत्या कर डाली है।किन्तु, नहीं,जीवित रहूँगा मैंपहले ही मेरे पक्ष मेंनहीं है निर्धारित भविष्य अगर’तो वह तटस्थ है!शत्रु है अगर वह तटस्थ है!(वृद्ध की ओर बढ़ने लगता है।)आज नहीं बच पाएगावह इन भूखे पंजों सेठहरो! ठहरो!ओ झूठे भविष्यवंचक वृद्ध!(दाँत पीसते हुए दौड़ता है। विंग के निकट वृद्ध को दबोच कर नेपथ्य में घसीट ले जाता है।)वध, केवल वध, केवल वधमेरा धर्म है।(नेपथ्य में गला घोंटने की आवाज, अश्वत्थामा का अट्टाहास। स्टेज पर केवल दो प्रकाश-वृत्त नृत्य करते हैं। कृपाचार्य, कृतवर्मा हाँफते हुए अश्वत्थामा को पकड़ कर स्टेज पर ले जाते हैं।)- पंचम अंक
कृपाचार्य – यह क्या किया,अश्वत्थामा।यह क्या किया?अश्वत्थामा – पता नहीं मैंने क्या किया,मातुल मैंने क्या किया!क्या मैंने कुछ किया?कृतवर्मा – कृपाचार्यभय लगता हैमुझकोइस अश्वत्थामा से!(कृपाचार्य अश्वत्थामा को बिठाकर, उसका कमरबन्द ढीला करते हैं। माथे का पसीना पोंछते हैं।)कृपाचार्य – बैठोविश्राम करोतुमने कुछ नहीं कियाकेवल भयानक स्वप्न देखा है!अश्वत्थामा – मैं क्या करूँमातुल!वध मेरे लिए नहीं नीति है,वह है अब मनोग्रन्थि!इस वध के बादमांसपेशियों का सब तनावकहते क्या इसी को हैंअनासक्ति?’कृपाचार्य – (अश्वत्थामा को लिटा कर)सो जाओ!कहा है दुर्योधन नेजाकर विश्राम करोकल देखेंगे हमपांडवगण क्या करते हैं –करवट बदल करतुम सो जाओ(कृतवर्मा से)सो गया।कृतवर्मा – (व्यंग्य से)सो गया।इसलिए शेष बचे हैं हमइस युद्ध मेंहम जो योद्धा थेअब लुक-छिप करबूढ़े निहत्थों काकरेंगे वध।कृपाचार्य – शान्त रहो कृतवर्मायोद्धा नामधारियों मेंकिसने क्या नहींकिया हैअब तक?द्रोण थे बूढ़े निहत्थेपरछोड़ दिया था क्याउनको धृष्टद्युम्न ने?या हमने छोड़ा अभिमन्यु कोयद्यपि वह बिलकुल निहत्था थाअकेला थासात महारथियों ने…अश्वत्थामा – मैंने नहीं मारा उसेमैं तो चाहता था वध करना भविष्य कापता नहीं कैसे वहबूढ़ा मरा पाया गया।मैंने नहीं मारा उसेमातुल विश्वास करो।कृपाचार्य – सो जाओसो जाओ कृतवर्मा!पहरा मैं देता रहूँगा आज रात भर।(वे लौटते हैं। पर्दा गिरने लगता है।)जिस तरह बाढ़ के बाद उतरती गंगातट पर तज आती विकृति, शव अधखायावैसे ही तट पर तज अश्वत्थामा कोइतिहासों ने खुद नया मोड़ अपनायावह छटी हुई आत्माओं की रातयह भटकी हुई आत्माओं की रातयह टूटी हुई आत्माओं की रातइस रात विजय में मदोन्मत्त पांडवगणइस रात विवश छिपकर बैठा दुर्योधनयह रात गर्व मेंतने हुए माथों कीयह रात हाथ परधरे हुए हाथों की(पटक्षेप)
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